परम सत्य क्या है

यूं तो आमतौर पर जीवन का सत्य संघर्ष भी है,और ये संघर्ष सभी लोगों के साथ अलग-अलग हैं,कोई अमीर अपने धनी रहने या और धनी होने के लिए संघर्ष करता है,कोई गरीब दो रोटी के लिए संघर्ष करता है,कोई साधक सत्य को पाने के लिए संघर्ष करता है,कोई भक्त अपने प्रभु दर्शन लिए संघर्षरत है।

 

मृत्यु भी एक कड़वा सत्य है।

जीवन का सबसे बड़ा सत्य है कि वह मृत्यु की ओर चलता है। सभी को लगता है कि वह अपने जीवन में आगे जा रहे हैं परन्तु सत्य ये है कि जन्म के बाद जीवन पीछे जाता रहता है। उम्र बढ़ती है पर जीवन घटता है।

जैसे मान लेते हैं किसी जीव का इस संसार मे जन्म हुआ जिसका अनुमानित जीवन 100 वर्ष का है। तो उसके जन्म के बाद हर दिन प्रति क्षण उसका जीवन कम होता रहेगा और जब उसका समय पूर्ण हो जाएगा तो जीवन समाप्त हो जाएगा। जीवन की शुरुआत को जन्म और अंत को मृत्यु कहते हैं।

कुरुक्षेत्र के युद्ध क्षेत्र में युद्धारंभ के पूर्व जब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्म, उपासना और ज्ञान का उपदेश दिया था, तब अंत में अर्जुन ने पूछा, प्रभु! इस संसार में सत्य क्या है। इसके उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा, मित्र! इस संसार में एक ही तथ्य सत्य है और वह है इस धरती पर जन्म लेने वाले की अनिवार्यत: मृत्यु होना। यानी जो जन्मा है, वह मरेगा अवश्य।

‘जातस्य हि धुवो मृत्यु:।’

इसमें पशु, पक्षी, कीट, पतंग, अनुरक्त और विरक्त का किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है।

प्राणी की मृत्यु पर किसी एक विचारक ने मृत्यु की अनिवार्यता के संबंध में यह भी कहा है कि मृत्यु के लिए तीन स्थितियां ऐसी होती हैं, जो किसी की भी मृत्यु के पूर्व विद्यमान रहती हैं। उन स्थितियों में से एक है प्रत्येक प्राणी की मृत्यु के स्थान का पूर्ण निश्चित होना। दूसरी स्थिति है प्रत्येक मरणशील प्राणी के मृत्यु का पूर्व से ही समय निश्चित होना और तीसरी स्थिति है मरणधर्मा जीव की मृत्यु का कोई न कोई कारण होना। किसी भी प्राणी की मृत्यु के पूर्व इन तीनों स्थितियों का होना जहां अपरिहार्य है,वहीं इन तीनों स्थितियों पर मरने वाले जीव का कोई वश नहीं है।प्राय: कभी-कभी हम यह देखते हैं कि कोई जीव अपने मरण स्थान से बहुत दूर होता है, किंतु किसी न किसी कारण से वह अचानक ही वहां पहुंच जाता है जहां उसका मरण निश्चित होता। इस स्थिति को न तो मृत्यु प्राप्त होने वाला जीव जानता है और न उसके सगे-संबंधी ही जान पाते हैं।

एक बार एक भविष्य वक्ता पंडित जी खड़े-खड़े हंस रहे थे। उसी समय वहां से निकलते हुए नारद जी ने उनसे उनके हंसने का कारण पूछा। पंडित ने कहा कि मैं यह देख रहा हूं कि कुछ क्षणों के बाद उस एक छोटी-सी बिल्ली को यहांसे चार सौ कोस दूर मरना है और यह अभी यहीं है। नारद जी ऋषि थे। वे बोले मैं इसे अभी एक दूरस्थ गुफा में छिपाए देता हूं, फिर देखता हूं, यह कैसे मरती है। नारद जी ने उसे उठाया। अपनी समझ से बहुत दूर गहन गुफा में उसे छिपा दिया। वहीं पर पहले से एक शिकारी कुत्ता बैठा था, जो बिल्ली को मार कर खा गया। यही स्थिति समय और मरण के कारण की भी होती है। इसीलिए यह कहा जाता है कि विद्या, कर्म, धन, आयु और निधन का स्वरूप जीव की मां के गर्भ में आते ही निश्चित हो जाता है। जिसमें परिवर्तन कर पाना किसी के वश में नहीं होता है। इसलिए यही सिद्धांत है कि मनुष्य को अपना कर्म करते हुए निश्चिंत मन से जीवन जीना चाहिए

एक बार जीवन ने मृत्यु से पूछा की तुम्हे लोग इतना घृणा क्यों करते है व मुझसे इतना प्रेम क्यों?

मृत्यु ने बड़े प्रेम स्वभाव से बोला,

“तुम एक सुंदर झूठ हो,मनुष्य की प्रवृति ही ऐसी है कि वो सुन्दर वस्तुओं के पीछे आकर्षित होता है,वहीं में एक कड़वा सत्य हूं,मैं एक न एक दिन सबको आऊंगा”

ये तो बात जीवन के अन्य सत्यों की हुई किन्तु परम सत्य,परम सत्य सिर्फ ईश्वर हैं। जिस प्रकार तार में बिजली दिखाई नहीं देती है,उसी प्रकार जीवों के शरीर में विद्यमान परमात्मा भी दिखाई नहीं देता है। परमात्मा को देखने के लिए महसूस करने के लिए एक निश्छल हृदय का होना अति आवश्यक है।

ईश्वर के बिना हम कुछ भी नहीं हैं।इंसान के जीवन की सारी अपेक्षाएं ईश्वर से शुरू होकर ईश्वर पर ही खत्म होती है।

आत्मा वा अरे द्रव्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रैय्यात्मनो।

वा अरे दर्शनेन श्रवणेन मत्या विज्ञानेनेद्ं सर्वं विदितम्॥

ऋषि याज्ञवल्क्य द्वारा यह ज्ञान हमें दो पंक्तियों में ही पूरे जीवन का अमृत व्यक्त कर दिया गया है। हर मनुष्य इस संसार में क्रिया करने के लिये स्वतंत्र है।अपने पूरे जीवन क्रियारत रहता है।ॠषि पत्नी एक ही बात पूछ रही है कि यह मनुष्य किस बात के लिये क्रियाशील रहता है। क्या वह धन, संतान, परिवार, वंश वृद्धि, यश, प्रतिष्ठा, विजय आदि के लिये क्रियाशील रहता है तो इसमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्या है?जीवन का मर्म क्या है? किस लक्ष्य को वह प्राप्त करना चाहता है?

यज्ञवल्क्य बड़े ही सरल भाव में कहते है, देखों मैत्रेयी इस कामनापरख संसार में मनुष्य केवल अपनी आत्मा की कामना के लिये ही सबकुछ प्रिय होता है। अपनी आत्मा को प्रसन्न रखने के लिये ही वह क्रियाशील होता है। उसी आत्मसुख को प्राप्त करने के लिये अपनी आत्मा को देखना, सुनना, समझना और जानना पड़ता है।

अब महर्षियों ने प्रश्‍न को बहुत ही उलझा दिया है। मन, आत्मा सबको अपने-अपने ढ़ंग से समझाया है। तो जहां से जानते है वही से प्रारम्भ करते है। हम अज्ञात को जानने के लिये ज्ञात के मार्ग पर चला जाए। ज्ञात से ही अज्ञात की यात्रा होती है। तो ज्ञात क्या है? हमारा शरीर हम इसे देख सकते है, सुन सकते है। पल-प्रतिपल अनुभव करते है और देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इसी शरीर से सारी क्रियाएं सम्पन्न होती है और शरीर का सुख ही अन्तिम सत्य है।

अपने हृदय पर हाथ रखकर इस शरीर से पूछो कि क्या शरीर का सुख ही अन्तिम सुख है तो मन अपने आप बोल जायेगा कि शरीर का सुख ही अन्तिम सत्य नहीं है। शरीर तो एक माध्यम है जिसे शरीर के द्वारा कुछ जाना जा सकता है, कुछ समझा जा सकता है पर यह अन्तिम सत्य तो नहीं है। केवल पांच इन्द्रियों से प्राप्त होने वाला सुख अन्तिम सत्य तो नहीं है। वास्तविक सुख वो है जब आत्मा को जानेंगे,उसे समझेंगे तभी तो आत्म ज्ञान,आत्म सुख के लक्ष्य की ओर बढ़ेंगे। याज्ञवल्क्य ने कहा है कि संसार के सारे कार्य मनुष्य द्वारा आत्मा की कामना के लिये,आत्मा को सुख देने के लिये ही किये जाते हैं।

 

परम सत्य क्या है?

 

सत्य शाश्वत है

संसार में यदि कोई चीज शाश्वत(eternal) है, तो वह केवल परम सत्य है। यह एक ऐसी शक्ति है जो किसी भी कालखंड में कभी नष्ट नहीं होती है। ब्रह्मांड का प्रत्येक नियम सत्य की बुनियाद पर ही टिका हुआ है । ईश्वर द्वारा बनाया गया कोई भी नियम कभी भी विपरीत कार्य नहीं करता है। सूर्य पूर्व दिशा में निकलता है तो, वह सदैव पूर्व में ही निकलेगा। आप सभी ने एक बात नोट की होगी कि कोई भी प्राकृतिक नियम(गुरुत्वाकर्षण, घर्षण, ग्रह गति, आदि विज्ञान के नियम) कभी विकृत नहीं होते, ये नियम जैसे भूतकाल में व्यवहार करते थे, वर्तमान में भी ठीक उसी प्रकार कार्य करते है। विज्ञान की ये क्रियाएँ परमात्मा द्वारा बनाये गये नियमों का पूर्णता से पालन करती है और जब तक सृष्टि रहती है सदैव एक समान व्यवहार करती है। सभी ईश्वरकृत चीजें व नियम प्रत्येक युग में एक जैसी बनी रही यही संसार की  शाश्वता है। सत्य शाश्वत है इसलिए इसे मिटाया नहीं जा सकता है, उपनिषद कहता है ” सत्यमेव जयते ” ( सत्य की सदैव विजय होती है)।

सत्य ही धर्म है

हम सभी लोग प्रतिदिन धर्म के विषय में कुछ-न-कुछ सुनते, पढ़ते रहते है, परंतु बहुत ही कम व्यक्तियों का धर्म का सही अर्थ पता होता है। धर्म कोई मत पंत नहीं होता, अपितु धर्म सत्य का ही पर्यायवाची होता है। धर्म की उत्पत्ति सत्य के माध्यम से होती है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा कि जब जगत में धर्म की हानि होती है, तो वे बुराई का अंत कर धर्म की रक्षा व पुनर्स्थापना करते है। इसलिए धर्म सत्य का ही दूसरा रूप है; संसार में सभी लोगों का कोई न कोई धर्म होता अवश्य होता है। उदाहरण के लिए पिता का धर्म है अपनी संतान का सही ढ़ंग से पालन पोषण करना और उनका चरित्र निर्माण करना, राजा का धर्म प्रजा की प्रत्येक स्थिति में रक्षा करना, विद्वानों का धर्म सदैव समाज में सही शिक्षा का प्रचार करना होता है।

जन्म व मृत्यु सत्य है

यह बात प्रत्येक स्थिति में सत्य है कि जिस जीव का जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी तय है । संसार में आज तक कोई जीव ऐसा नहीं है जो सदैव जीवित रहे । जिसका जन्म हुआ है उसे मृत्यु भी आयेगी। ईश्वर भी इस प्रकृति के नियम को निभाते आए हैं । वास्तव में जब कोई जीवात्मा पृथ्वी या अन्य सृष्टि में जन्म लेती है तो, एक बात बिल्कुल निश्चित हो जाती है कि जन्म लेने वाला एक दिन मृत्यु को प्राप्त होगा। सही अर्थ में जिस क्षण कोई जीव जन्म लेता है उसी क्षण से वह मृत्यु की यात्रा करना आरम्भ कर देता है। इसलिए जिसका जन्म होता है वह निश्चित रूप में एक न एक दिन अवश्य मरता है, मृत्यु लोक में सब कुछ नश्वर  है । यही जीवन का सत्य है।

सत्य दया है

यह तो सत्य है की यह कलयुग संसार असभ्य एवं दुष्ट लोगों से भरा पड़ा है, दुनिया में बहुत कम ऐसे लोग होते है जिनके भीतर करुणा गुण विराजमान होता है। जब व्यक्ति की अंतरआत्मा सत्य विद्या द्वारा अज्ञान को मिटाकर ज्ञान प्राप्त करती है तो मनुष्य के हृदय में करूणा भाव उत्पन्न होता है तभी दया का जन्म होता है। धर्म कहता है कि सभी जीवों के अन्दर एक जैसी चेतना एवं प्रेरणा है, इसलिए मनुष्य को सभी जीवो पर दया करनी चाहिए। जैसा व्यवहार-अनुभव व्यक्ति स्वयं के लिए चाहता है, दूसरे व्यक्तियों अथवा जीवों के प्रति भी उसे ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। किसी भी राष्ट्र के राजा एवं प्रजा का कर्तव्य है कि कमजोर, पीडित, दमित और सज्जनों के दुखों का निवारण करने का सदैव प्रयत्न करते रहे, लेकिन यह याद रखें कि कोई भी दुष्ट व्यक्ति दया के पात्र नहीं होते, इसलिए बुद्धिमानी पूर्वक केवल सुपात्र व्यक्तियों की सहायता करें।

कर्तव्यों का पालन सत्य है

अपने पारिवारिक एवं सांसारिक कर्तव्यों को सही रूप से पहचान कर उन्हें पूर्ण करने की चेष्टा करना सभी लोगों का धर्म है । माता पिता का बच्चों के प्रति, बच्चो का बड़ों के प्रति, एवं शिक्षक-छात्र एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन करते हुए श्रेष्ठ समाज का निर्माण करे, यही सत्य का गुण है। मनुष्य को चाहिए कि वह पूर्ण पुरुषार्थ करता हुआ अपने दायित्वों को निभाये, साथ ही एक बात का सदैव ध्यान रखें कि कर्तव्य केवल जन मानस की ही सेवा करना नहीं अपितु, प्रकृति व अन्य जीव की सेवा तथा संरक्षण करना भी सभी मनुष्यों का कर्तव्य होता है। यह जीवन चक्र मनुष्य, पशु पक्षी, जानवर, प्रकृति एवं अन्य छोटे मोटी सभी जीवो के योगदान से चलता है, मात्र मनुष्य के द्वारा नहीं। ब्रह्माण्ड की वस्तुओं व संसाधनों भोग पर केवल मनुष्य को अधिकार नहीं, अपितु अन्य सभी जीवों का भी मनुष्य के बराबर अधिकार है। इसलिए प्रकृति का संतुलन बना कर रखना सभी लोगों का कर्तव्य है। तभी एक खुशहाल जीवन की कल्पना की जा सकती है।

सत्य स्वयं परमेश्वर है

मात्र ईश्वर व जीव को छोड़कर संसार की सभी वस्तुएं नश्वर है, साधारण शब्दों में कहे तो परमेश्वर अविनाशी है, वह सब सत्य विद्याओं एवं ज्ञान का स्त्रोत है; अतः सत्य का लक्ष्य परमपिता परमात्मा के द्वारा बताये गये मार्ग को श्रद्धा पूर्वक अनुसरण करना और समाज में सत्य विद्या का प्रचार करना है। परमेश्वर सम्पूर्ण, सर्व शक्तिशाली और शाश्वत है, इसलिए अपने सामर्थ्य का प्रयोग कर इस ब्रहृाड की रचना करते है ताकि जीव, जगत में कर्म करते हुए संसार के सुख दुख भोग सके। इसलिए सभी विद्वान जन ईश्वर को अपना आराध्य मानकर उनकी भक्ति करते है। ईश्वर कर्म के अनुसार मनुष्यों को उनका फल प्रदान करता है। सही गलत में भेद करने की क्षमता ईश्वर ने मनुष्य को प्रदान की है। ईश्वर चाहता है कि लोग बुरे मार्ग को त्याग करें एवं सत्य मार्ग को धारण करे। सत्य मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को  परब्रह्म पर पूर्ण विश्वास होता है अतः ऐसे व्यक्ति निडर होते है और वीरतापूर्वक अपना जीवन आनंद से व्यतीत करते है।

 

सत्य का उद्देश्य क्या है?

अधर्म व दुष्टों का दमन करना एवं बुराई को नष्ट कर संसार में शांति की स्थापना करना सत्य का वास्तविक उद्देश्य है । सत्यवादी सदैव दुर्जन मनुष्यो का पूरे जोर से खंडन करते है, अगर किसी व्यक्ति को सत्य कथन बोलने पर मृत्यु का सामना करना पड़े तो भी पीछे नहीं हटना चाहिए।

शास्त्रों में मनुष्य जाति को सत्य धर्म पालन करने का आदेश दिया गया है, वास्तव में धर्म का जन्म सत्य से ही होता है। सभी भारतीय शास्त्रों का मूल केन्द्र  सत्य से ही जुड़ा हुआ, अध्यात्म विज्ञान सत्य के मार्ग पर चलकर परमआनंद पूर्ण जीवन  व्यतीत करने की कला सिखाता है। हमें यह बात मस्तिष्क में रख लेनी चाहिए कि, सत्य मार्ग पर चलना सरल नहीं होता है, यह मार्ग तो तीव्र प्रज्वलित अग्नि में अपनी आहुति देने के समकक्ष है। दूसरे अर्थ में कहे तो यह तलवार की धार पर चलने के समान है. सत्य की स्थापना एवं उसका रक्षण करने वाले व्यक्ति एक वीर योद्धा होते है, इसलिए सभी सभ्य व्यक्तियों का कर्तव्य है कि वे प्रत्येक स्थिति में सत्य की रक्षा करते रहे । अगर समाज में सत्य की हानि होती है तो लोगों में भ्रष्टाचार, षड्यंत्र, चोरी लूटपाट, और बुराई आदि अवगुणों का वर्चस्व स्थापित हो जाता है। जिससे सामान्य जनता का जीवन दुखों व यातनाओं से भर जाता है।

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