हिन्दू धर्मे के सबसे प्रमुख त्योहारों में से एक दुर्गा पूजा है। जिसे हम दशहरा तथा शरदोत्सव के नाम से भी जानते हैं । ये पर्व में 9 दिन माता दुर्गा के सभी 9 रूपों को अलग-अलग दिन पूजा जाता है। इस पर्व पर नौ दिन तक माता दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है। ये पर्व ग्रीगेरीयन कैलेंडर के महीनों के आधार पर सितम्बर या अक्टूबर में आता है। इस पर्व का सभी हिन्दुओं को लम्बे समय से इंतजार रहता है। ये सम्पूर्ण देशभर में बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। मुख्य रूप से यह त्योहार दक्षिणी भारत में मनाया जाता है। इस पर्व को माता दुर्गा से आशीष की प्राप्ति के लिए मनाते है।
दुर्गा पूजा का त्योहार माता दुर्गा की, बुराई के प्रतीक राक्षस महिषासुर पर विजय के रूप में मनाया जाता है। अतः दुर्गा पूजा का पर्व बुराई पर अच्छाई की विजय के रूप में भी मानाया जाता है।
यह त्योहार पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखण्ड, मणिपुर, ओडिशा, और त्रिपुरा आदि भारतीय राज्यों व्यापक रूप से मनाया जाता है जहाँ इस समय पांच-दिन की वार्षिक छुट्टी रहती है। बंगाली हिन्दू और आसामी हिन्दुओं बहुल क्षेत्र पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा में यह वर्ष का सबसे बड़ा उत्सव माना जाता है।
यह न केवल सबसे बड़ा हिन्दू त्यौहार है बल्कि यह बंगाली हिन्दू समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से सबसे महत्त्वपूर्ण उत्सव भी है। पश्चिमी भारत के अतिरिक्त दुर्गा पूजा का उत्सव दिल्ली, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, कश्मीर, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल में भी मनाया जाता है। दुर्गा पूजा का उत्सव 91% हिन्दू आबादी वाले नेपाल और 8% हिन्दू आबादी वाले बांग्लादेश में भी बड़े त्यौंहार के रूप में मनाया जाता है। वर्तमान में विभिन्न प्रवासी आसामी और बंगाली सांस्कृतिक संगठन, संयुक्त राज्य अमेरीका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, फ्रांस, नीदरलैण्ड, सिंगापुर और कुवैत सहित विभिन्न देशों में आयोजित करवाते हैं।
वर्ष 2006 में ब्रिटिश संग्रहालय में विशाल दुर्गापूजा का उत्सव आयोजित किया गया था।
दुर्गा पूजा की प्रसिद्धि ब्रिटिश राज में बंगाल और भूतपूर्व असम में धीरे-धीरे बढ़ी। दिसम्बर 2021 में कोलकाता की दुर्गा पूजा को यूनेस्को की अगोचर सांस्कृतिक धरोहर की सूची में सम्मिलित किया गया।
इस पर्व पर माता दुर्गा की नौ दिन पूजा करके तथा उपवास रखते है, तथा दसवे दिन दशहरा मनाया जाता है। लगातर नौ दिन की पूजा के पश्चात माता दुर्गा की प्रतिमा को विशाल नदी या समुद्र में विसर्जन किया जाता है। दशहरा जिसे हम विजयादशमी कहते है, यह दशमी भी दुर्गा पूजा के पर्व में शामिल है। भारत त्योहारों का देश है, यहाँ समय-समय पर कई पर्वो को बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता है। दुर्गा पूजा उन्ही में से एक है। इस पर्व का विशेष धार्मिक महत्व है। ये त्यौहार माता दुर्गा की पूजा के रूप में मनाया जाता है। इस पर्व पर नौ दिन तक माता दुर्गा के सभी रूपों की पूजा किया जाता है। इस पर्व को सच्चाई और अच्छाई का प्रतीक माना जाता है। ये पर्व सच्चाई की जीत की खुशी में मनाते है।
इस पर्व को धार्मिक दृष्टिकोण से देखा जाता है। इस पर्व पर नौ दिन तक उपवास रखा जाता है, तथा दंसवे दिन दशहरा मनाया जाता है। नौ दिनों तक श्रद्धा पूर्वक पूजा अर्चना करने से माता दुर्गा सभी के कष्टों का निवारण करती है,तथा जीवन में शांति का माहौल प्रदान करती हैं। यह पर्व साल में दो बार आता है। पहली बार चैत्र महीने में तथा आश्विन महीने में आता है जिसे चैत्र नवरात्र को हम वासन्तिक नवरात्र कहते हैं, तथा आश्विन नवरात्र को शारदीय नवरात्र भी कहते है।
दुर्गा पूजा का महत्व
यह त्योहार हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है। इस पर्व का धार्मिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्मिक महत्व बहुत ज्यादा है। इस पर्व पर माता दुर्गा की पूजा की जाती है, तथा इस व्रत में पूरी श्रद्धा के साथ माता दुर्गा के लिए उपवास जाता है।
दुर्गा पूजा में शुरुआत से अंत तक अखंड दीपक जलाया जाता है, तथा माता दुर्गा से आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। दुर्गा पूजा का हमारी संस्कृति में विशेष महत्व है। इस पर्व को महिलाओ की सुरक्षा से जोड़ा गया है, ये पर्व लोगो में उत्साह तथा प्रेम भर जाता है।
दुर्गा पूजा मुख्यत: हिन्दू धर्म का त्यौहार है। इस त्यौहार को मानाने के लिए विशेष समारोह का आयोजन होता है। जगह जगह पर नए नए पंडाल सजाए जाते है। इस पर्व का समरोह पुरे 10 दिन तक चलता है। यह पर्व काफी प्राचीन समय से मनाया जाता रहा है।
पिछली कई सदियों से इस पर्व को हिन्दू धर्म के लोग मनाते आ रहे हैं। ये पर्व एक पारम्परिक पर्व है। इस पर्व को भारतीय संस्कृति विरासत से जोड़ा गया है। हमारी संस्कृति की कुछ नीतियां भी इसमे शुमार है। जैसे उपवास करना, पूजा-अर्चना तथा दावत आदि इस पर्व में हमें देखने को मिलता है।
इस पर्व से महिलाओ की शक्ति तथा उनके महत्व को समझा जाता है। इस पर्व पर कन्याओं का पूजन भी किया जाता है। इस पर्व के शुरूआती सात दिनों के पश्चात कन्या पूजन किया जाता है। दुर्गा पूजा माँ दुर्गा और नारी शक्ति के सम्मान में माता दुर्गा के नौ रूपों को समर्पित उत्सव है।
इस उत्सव पर कई लोग दुर्गा का रूप धारण करके रामीलाल का कार्यक्रम कर लोगो में आस्था की दीपक जलाते है, तथा लोगो का मनोरंजन करते है।
माता दुर्गा की कहानी और इस पर्व से जुड़ी किंवदंतियाँ
कैलाश पर्वत के ध्यानी की अर्धांगिनी मां सती ही दूसरे जन्म में पार्वती के रूप में विख्या हुई उन्हें ही ही शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री आदि नामों से जोड़कर देखा जाता है। जिन्हें दुर्गा, जगदम्बा, अम्बे, शेरांवाली आदि कहा जाता है वे सदाशिव की अर्धांगिनी है।
सतयुग काल में राजा दक्ष की पुत्री सती माता को ही आदिशक्ति कहा जाता है। शिवजी से विवाह होने के कारण उनका नाम शक्ति हो गया। हालांकि उनका असली नाम दक्षायनी था। एक बार यज्ञ कुंड में कुदकर आत्मदाह करने के कारण भी उन्हें सती कहा जाता है। बाद में उन्हें पार्वती माता के रूप में जन्म लिया। पार्वती नाम इसलिए पड़ा की वह पर्वतराज अर्थात् पर्वतों के राजा की पुत्र थी।
पिता की अनिच्छा से उन्होंने हिमालय के इलाके में ही रहने वाले योगी शिव से विवाह कर लिया। एक यज्ञ में जब दक्ष ने सती माता और शिवजी को न्यौता नहीं दिया, फिर भी माता सती शिवजी के मना करने के बावजूद अपने पिता के घर यज्ञ में पहुंच गई, लेकिन दक्ष ने शिवजी के विषय में सती के सामने ही अपमानजनक बातें कहनी शुरू कर दी । माता सती को यह सब बर्दास्त नहीं हुआ और उन्होंने वहीं यज्ञ कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए।
यह खबर सुनते ही शिवजी ने अपने सेनापति वीरभद्र को भेजा, जिसने दक्ष का सिर काट दिया। इसके बाद शिवजी दुखी होकर सती के शरीर को अपने सिर पर धारण कर क्रोधित हो धरती पर घूमते रहे। शिवजी को इस वियोग से बाहर निकालने के लिए भगवान विष्णु ने माता सती के मृत शरीर को सुदर्शन के छिन्न भिन्न कर डाला, इस दौरान पृथ्वी पर जहां-जहां भी माता सती के शरीर के अंग या आभूषण गिरे वहां बाद में शक्तिपीठ निर्मित किए गए। जहां पर जो अंग या आभूषण गिरा उस शक्तिपीठ का नाम वह हो गया। इसका यह मतलब नहीं कि अनेक माताएं हो गई। माता पर्वती ने ही शुंभ-निशुंभ, महिषासुर आदि राक्षसों का वध किया था।
माता का रूप
माता के एक हाथ में तलवार और दूसरे में कमल का फूल होता है। पितांबर वस्त्र, सिर पर मुकुट, मस्तक पर श्वेत रंग का अर्थचंद्र तिलक और गले में मणियों-मोतियों का हार से सुशोभित हैं। शेर हमेशा माता के सवारी के रूप में उनके साथ रहता है।
माता की प्रार्थना
जो दिल से पुकार निकले वही प्रार्थना। न मंत्र, न तंत्र और न ही पूजा-पाठ। प्रार्थना ही सत्य है। मां की प्रार्थना या स्तुति के पुराणों में कई श्लोक दिए गए है।
माता का तीर्थ
शिव का धाम कैलाश पर्वत है वहीं मानसरोवर के समीप माता का धाम है। जहां दक्षायनी माता का मंदिर बना है। वहीं पर मां साक्षात विराजमान है।
किवदंतियां
तो आइए अब हम माता से जुड़ी किवदंतियों पर भी नजर डालते हैं ।
- एक बार राक्षस महिषासुर ने अचानक स्वर्ग पर हमला कर दिया। महिषासुर बहुत शक्तिशाली था। जिस कारण उसका कोई सामना नहीं कर पा रहा था। इसलिए वो भयानक होता जा रहा था, तथा देवलोक के सभी देवताओ को परेशान कर रहा था देवताओ को संकट में देख महादेव, विष्णु तथा ब्रह्मा जी ने आराधना कर माता दुर्गा का आह्वान किया , माता दुर्गा दस हाथो वाली शक्तिशाली महिला का रूप में महिषासुर से युद्ध करने के लिए मैदान में उतरी थी।इस शक्तिशाली और अलौकिक शक्तिमान महिला को कई नाम दिया गए। माता दुर्गा लगातर नौ दिन तक राक्षस महिसासुर से लड़ी और दसवे दिन माता दुर्गा दुष्ट का वध कर विजयी होती हैं।इस दिन सभी देवता माता दुर्गा के इस दिवस को यादगार बनाते है, तथा तभी से दशहरे की शुरुआत हुई, और आज हभी हम इसी दिन माँ दुर्गा के इस दिन को याद करते है।
- महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के अनुसार लंकापति रावण का अंत करने के लिए भगवन राम माता दुर्गा की पूजा कर उनसे आशीर्वाद लेते है, तथा इस युद्ध में जब तक जीत नहीं मिलती वे प्रण लेते है, कि मै इस युद्ध को माँ के आशीर्वाद से जीतकर ही भोजन करूँगा। और इसी प्रकार राम ने नौ दिन तक रावण से युद्ध के दौरान भोजन नहीं किया। और दशहरे के दिन राम ने रावण का वध किया, और इस संसार के रावण जैसे दुष्ट के भार को कम किया। रावण के वध के साथ ही सभी ने प्रभु श्री राम का स्वागत किया और इस दिवस को दशहरे के रूप में मानाने लगे, और आज भी हम श्री राम की तरह ही नौ दिन तक अखंडित उपवास करते है, और माता दुर्गा की पूजा करते है, तथा दसवे दिन हवन के पश्चात भोजन करते है,तथा रावण के पुतले को जलाते है। इस दिन के बाद से हम हर वर्ष बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में इस पर्व को मनाते है,तथा भगवान की पूजा करते है।